Thursday, 17 August 2017

क्या लिखना चाहता है ये कवि ?

MAYANK BOKOLIA

मैं कविता लिखना चाहता हूँ "आज़ादी पर"
कोरे कागज़ पर कलम रख उकेरना चाहता हूँ
वो सब जो मैं जी रहा हूँ
वो सब जो मैं देख रहा हूँ
मैं देख रहा हूँ
मेरी कलम हिलने भर से भी इनकार कर रही है
एक अनकही कविता
मेरे सामने गिड़गिड़ा रही है
हाथ जोड़ रही है के मुझे मत गढ़ो
कविता शर्मसार है मुझसे कह रही है
कवितायेँ तो सुन्दर होती है
तुम आज़ादी पर कविताएं मत लिखो

सरकारी अस्पतालों में
सरकार का पैसा अब तक नहीं पहुँचा
राम भरोसे सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है
दफ्तरों की कुर्सियों पर नरभक्षी बैठें है
कच्ची उम्र का कच्चा मांस
इन्हें नमकीन लगता है
गलती किसी की नहीं है
औकात का मामला है
बिट्टू ,सोनू ,मुन्ना
आज सब पतंगे उड़ा रहे होते
आज़ादी की कहानियाँ सुनते
आज़ादी के 70 साल बाद भी
जो आदमी प्राइवेट में इलाज न करा सके
वो आसमान छूती पतंगे क्या ख़ाक उड़ाएंगे
अच्छा है छोटी उम्र में ही मर गए
अच्छा ही तो है
ज़िन्दा रहते भी ,तो क्या उखाड़ लेते
गरीबी से लड़ते
सिस्टम से लड़ते
या और ज्यादा होता तो
कवितायेँ लिखते

हाथ पकडे प्रेम में ये जोड़ा आखिर
किसको डरा सकता है
इनसे किसको डर है
पकड़े जाने पर जब
इनके गालों पर थप्पड़ पड़ रहे थे
ये आज़ाद भारत में
आज़ादी से प्रेम करने की भीख मांग रहे थे

नई-नई स्कीम आ रही है
कालाधन गुलाबी नोटों की शक्ल ले चूका है
किसान को कॉरपोरेट बनाने का सपना है
जहाँ अब तक बिजली नहीं आई
वहां 4जी पहुंचा दिया गया है
स्मार्ट सिटी ,स्मार्ट फोन,
मामला डिजिटल है
किसानों की आत्महत्या
ये सब एक झूठ है
सब स्मार्ट है सबकुछ ओके है
वी आर रोक्किंग ! यो
मुझे देश का प्रधानमंत्री
किसी बंगाली जादूगर के काले जादू की तरह
जादू की तरक़ीब बांटता दिखता है
मुझे सुनाई दे रहा है, लाल किले से
वो बोल रहा है ,उसके पास है
"हस्तमैथुन से छुटकारे के पच्चीस उपाए"
वो ठग रहा है
आपको ,मुझको ,और इस नक़्शे को
जिसमें की तमाम भाषाएँ रंग-रूप सभ्यता
न जाने क्या क्या बसा हुआ है
उसे ये सब बिखरा-बिखरा दिखता
अलग-थलग नज़र आता है
वो सब "एक" करने पर तुला हुआ है
एक सपनों का भारत
एक आज़ाद भारत ।।

#PenMayank

Wednesday, 16 August 2017

उसे अईलाइनर पसंद था मुझे काजल.



लेखक: भास्कर त्रिपाठी


उसे अईलाइनर पसंद था मुझे काजल.

वो फ्रेंच टोस्ट और कॉफ़ी पे मरती थी और मैं अदरक की चाय पे.

उसे नाईट क्लब्स पसंद थे, मुझे रात की शांत सड़कें.

शांत लोग मरे हुए लगते थे उसे, मुझे शांत रहकर उसे सुनना पसंद था.

लेखक बोरिंग लगते थे उसे, पर मुझे मिनटों देखा करती, जब मैं लिखता.

वो न्यू यॉर्क के टाइम्स स्क्वायर, इस्तांबुल के ग्रैंड बाज़ार में शौपिंग के सपने देखती थी,

मैं असम के चाय के बागों में खोना चाहता था, मसूरी के लाल टिब्बे में बैठकर सूरज डूबता देखना चाहता था.

उसकी बातों में महंगे शहर थे, और मेरा तो पूरा शहर ही वो.

न मैंने उसे बदलना चाहा, न उसने मुझे.

अच्छा चला था इसी तरह सब.

एक अरसा हुआ, दोनों को रिश्ते से आगे बढे.

कुछ दिन पहले उनके साथ ही रहने वाली एक दोस्त से पता चला…

वो अब शांत रहने लगीं हैं,

लिखने लगीं हैं. मसूरी भी घूम आईं, लाल टिब्बे पर अँधेरे तक बैठी रहीं.

आधी रात को अचानक से उनका मन अब, चाय पीने का करता है.

और मैं…

मैं भी अब अकसर कॉफ़ी पी लेता हूँ, किसी महंगी जगह बैठक.


Author: Bhasker Tripathi

Monday, 14 August 2017

मोज़ील

सआदत हसन मन्टो

 बज़्म ले कर आ रहे है सआदत हसन मन्टो की बहुप्रसिद्ध कहानी मोज़ील ।

अधिक जानकारी के लिये हमें लिखे officialbazm@gmail.com

Sunday, 13 August 2017

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं
हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं
शम-ए-नज़र ख़याल के अंजुम जिगर के दाग़
जितने चराग़ हैं तिरी महफ़िल से आए हैं
उठ कर तो गए हैं तिरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं
हर इक क़दम अजल था हर इक गाम ज़िंदगी
हम घूम फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आए हैं
बाद-ए-ख़िज़ाँ का शुक्र करो 'फ़ैज़' जिस के हाथ
नामे किसी बहार-ए-शिमाइल से आए हैं

Wednesday, 9 August 2017

मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं : राहत इंदौरी


मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं ।
मगर उसे तो ख़बर है कि कुछ नहीं हूँ मैं ।।

अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझ को ।
वहाँ पे ढूँड रहे हैं जहाँ नहीं हूँ मैं ।।

मैं आईनों से तो मायूस लौट आया था ।
मगर किसी ने बताया बहुत हसीं हूँ मैं ।।

वो ज़र्रे ज़र्रे में मौजूद है मगर मैं भी ।
कहीं कहीं हूँ कहाँ हूँ कहीं नहीं हूँ मैं ।।

वो इक किताब जो मंसूब तेरे नाम से है ।
उसी किताब के अंदर कहीं कहीं हूँ मैं ।।

सितारो आओ मिरी राह में बिखर जाओ ।
ये मेरा हुक्म है हालाँकि कुछ नहीं हूँ मैं ।।

यहीं हुसैन भी गुज़रे यहीं यज़ीद भी था ।
हज़ार रंग में डूबी हुई ज़मीं हूँ मैं ।।

ये बूढ़ी क़ब्रें तुम्हें कुछ नहीं बताएँगी ।
मुझे तलाश करो दोस्तो यहीं हूँ मैं ।।

- राहत इंदौरी

Monday, 7 August 2017

क़दम मिला कर चलना होगा ।


बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

Tuesday, 1 August 2017

खिलौना


बीच बाज़ार 
खिलौने वाले 
के खिलौने 
की आवाज़ से 
आकर्षित हो 
कदम उसकी 
तरफ बढ़े,
मैंने छुआ,
सहलाया उन्हें 
व एक खिलौने 
को अंक में भरा
कि पीछे से कर्कष 
आवाज़ ने मुझे 
झंझोड़ा 
‘‘तुम्हारी बच्चों की सी 
हरकतें कब खत्म होंगी!’’
सुनकर मेरा नन्हा बच्चा 
सहम सा गया 
मेरी प्रौढ़ देह के अन्दर।

- शबनम शर्मा

Sunday, 30 July 2017

शिकवा | अल्लामा इक़बाल


क्यूँ ज़याँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ

फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ

नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ

हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ

जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को

शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को

है बजा शेवा-ए-तस्लीम में मशहूर हैं हम

क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम

साज़ ख़ामोश हैं फ़रियाद से मामूर हैं हम

नाला आता है अगर लब पे तो माज़ूर हैं हम

ऐ ख़ुदा शिकवा-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा भी सुन ले

ख़ूगर-ए-हम्द से थोड़ा सा गिला भी सुन ले

थी तो मौजूद अज़ल से ही तिरी ज़ात-ए-क़दीम

फूल था ज़ेब-ए-चमन पर न परेशाँ थी शमीम

शर्त इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीम

बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम

हम को जमईयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी

वर्ना उम्मत तिरे महबूब की दीवानी थी

हम से पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र

कहीं मस्जूद थे पत्थर कहीं माबूद शजर

ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र

मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर

तुझ को मालूम है लेता था कोई नाम तिरा

क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तिरा

बस रहे थे यहीं सल्जूक़ भी तूरानी भी

अहल-ए-चीं चीन में ईरान में सासानी भी

इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी

इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी

पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने

बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने

थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में

ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में

दीं अज़ानें कभी यूरोप के कलीसाओं में

कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सहराओं में

शान आँखों में न जचती थी जहाँ-दारों की

कलमा पढ़ते थे हमीं छाँव में तलवारों की

हम जो जीते थे तो जंगों की मुसीबत के लिए

और मरते थे तिरे नाम की अज़्मत के लिए

थी न कुछ तेग़ज़नी अपनी हुकूमत के लिए

सर-ब-कफ़ फिरते थे क्या दहर में दौलत के लिए

क़ौम अपनी जो ज़र-ओ-माल-ए-जहाँ पर मरती

बुत-फ़रोशीं के एवज़ बुत-शिकनी क्यूँ करती

टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे

पाँव शेरों के भी मैदाँ से उखड़ जाते थे

तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे

तेग़ क्या चीज़ है हम तोप से लड़ जाते थे

नक़्श-ए-तौहीद का हर दिल पे बिठाया हम ने

ज़ेर-ए-ख़ंजर भी ये पैग़ाम सुनाया हम ने

तू ही कह दे कि उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किस ने

शहर क़ैसर का जो था उस को किया सर किस ने

तोड़े मख़्लूक़ ख़ुदावंदों के पैकर किस ने

काट कर रख दिए कुफ़्फ़ार के लश्कर किस ने

किस ने ठंडा किया आतिश-कदा-ए-ईराँ को

किस ने फिर ज़िंदा किया तज़्किरा-ए-यज़्दाँ को

कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई

और तेरे लिए ज़हमत-कश-ए-पैकार हुई

किस की शमशीर जहाँगीर जहाँ-दार हुई

किस की तकबीर से दुनिया तिरी बेदार हुई

किस की हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे

मुँह के बल गिर के हू-अल्लाहू-अहद कहते थे

आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़

क़िबला-रू हो के ज़मीं-बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़

एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़

न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा-नवाज़

बंदा ओ साहब ओ मोहताज ओ ग़नी एक हुए

तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए

महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ में सहर ओ शाम फिरे

मय-ए-तौहीद को ले कर सिफ़त-ए-जाम फिरे

कोह में दश्त में ले कर तिरा पैग़ाम फिरे

और मालूम है तुझ को कभी नाकाम फिरे

दश्त तो दश्त हैं दरिया भी न छोड़े हम ने

बहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिए घोड़े हम ने

सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया हम ने

नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया हम ने

तेरे काबे को जबीनों से बसाया हम ने

तेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया हम ने

फिर भी हम से ये गिला है कि वफ़ादार नहीं

हम वफ़ादार नहीं तू भी तो दिलदार नहीं

उम्मतें और भी हैं उन में गुनहगार भी हैं

इज्ज़ वाले भी हैं मस्त-ए-मय-ए-पिंदार भी हैं

उन में काहिल भी हैं ग़ाफ़िल भी हैं हुश्यार भी हैं

सैकड़ों हैं कि तिरे नाम से बे-ज़ार भी हैं

रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर

बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलामानों पर

बुत सनम-ख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए

है ख़ुशी उन को कि काबे के निगहबान गए

मंज़िल-ए-दहर से ऊँटों के हुदी-ख़्वान गए

अपनी बग़लों में दबाए हुए क़ुरआन गए

ख़ंदा-ज़न कुफ़्र है एहसास तुझे है कि नहीं

अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं

ये शिकायत नहीं हैं उन के ख़ज़ाने मामूर

नहीं महफ़िल में जिन्हें बात भी करने का शुऊर

क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर

और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर

अब वो अल्ताफ़ नहीं हम पे इनायात नहीं

बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं

क्यूँ मुसलामानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब

तेरी क़ुदरत तो है वो जिस की न हद है न हिसाब

तू जो चाहे तो उठे सीना-ए-सहरा से हबाब

रह-रव-ए-दश्त हो सैली-ज़दा-ए-मौज-ए-सराब

तान-ए-अग़्यार है रुस्वाई है नादारी है

क्या तिरे नाम पे मरने का एवज़ ख़्वारी है

बनी अग़्यार की अब चाहने वाली दुनिया

रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया

हम तो रुख़्सत हुए औरों ने सँभाली दुनिया

फिर न कहना हुई तौहीद से ख़ाली दुनिया

हम तो जीते हैं कि दुनिया में तिरा नाम रहे

कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे जाम रहे

तेरी महफ़िल भी गई चाहने वाले भी गए

शब की आहें भी गईं सुब्ह के नाले भी गए

दिल तुझे दे भी गए अपना सिला ले भी गए

आ के बैठे भी न थे और निकाले भी गए

आए उश्शाक़ गए वादा-ए-फ़र्दा ले कर

अब उन्हें ढूँड चराग़-ए-रुख़-ए-ज़ेबा ले कर

दर्द-ए-लैला भी वही क़ैस का पहलू भी वही

नज्द के दश्त ओ जबल में रम-ए-आहू भी वही

इश्क़ का दिल भी वही हुस्न का जादू भी वही

उम्मत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल भी वही तू भी वही

फिर ये आज़ुर्दगी-ए-ग़ैर सबब क्या मअ'नी

अपने शैदाओं पे ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मअ'नी

तुझ को छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी को छोड़ा

बुत-गरी पेशा किया बुत-शिकनी को छोड़ा

इश्क़ को इश्क़ की आशुफ़्ता-सरी को छोड़ा

रस्म-ए-सलमान ओ उवैस-ए-क़रनी को छोड़ा

आग तकबीर की सीनों में दबी रखते हैं

ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हबशी रखते हैं

इश्क़ की ख़ैर वो पहली सी अदा भी न सही

जादा-पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी न सही

मुज़्तरिब दिल सिफ़त-ए-क़िबला-नुमा भी न सही

और पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा भी न सही

कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है

बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है

सर-ए-फ़ाराँ पे किया दीन को कामिल तू ने

इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तू ने

आतिश-अंदोज़ किया इश्क़ का हासिल तू ने

फूँक दी गर्मी-ए-रुख़्सार से महफ़िल तू ने

आज क्यूँ सीने हमारे शरर-आबाद नहीं

हम वही सोख़्ता-सामाँ हैं तुझे याद नहीं

वादी-ए-नज्द में वो शोर-ए-सलासिल न रहा

क़ैस दीवाना-ए-नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा

हौसले वो न रहे हम न रहे दिल न रहा

घर ये उजड़ा है कि तू रौनक़-ए-महफ़िल न रहा

ऐ ख़ुशा आँ रोज़ कि आई ओ ब-सद नाज़ आई

बे-हिजाबाना सू-ए-महफ़िल-ए-मा बाज़ आई

बादा-कश ग़ैर हैं गुलशन में लब-ए-जू बैठे

सुनते हैं जाम-ब-कफ़ नग़्मा-ए-कू-कू बैठे

दौर हंगामा-ए-गुलज़ार से यकसू बैठे

तेरे दीवाने भी हैं मुंतज़िर-ए-हू बैठे

अपने परवानों को फिर ज़ौक़-ए-ख़ुद-अफ़रोज़ी दे

बर्क़-ए-देरीना को फ़रमान-ए-जिगर-सोज़ी दे

क़ौम-ए-आवारा इनाँ-ताब है फिर सू-ए-हिजाज़

ले उड़ा बुलबुल-ए-बे-पर को मज़ाक़-ए-परवाज़

मुज़्तरिब-बाग़ के हर ग़ुंचे में है बू-ए-नियाज़

तू ज़रा छेड़ तो दे तिश्ना-ए-मिज़राब है साज़

नग़्मे बेताब हैं तारों से निकलने के लिए

तूर मुज़्तर है उसी आग में जलने के लिए

मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम की आसाँ कर दे

मोर-ए-बे-माया को हम-दोश-ए-सुलेमाँ कर दे

जींस-ए-ना-याब-ए-मोहब्बत को फिर अर्ज़ां कर दे

हिन्द के दैर-नशीनों को मुसलमाँ कर दे

जू-ए-ख़ूँ मी चकद अज़ हसरत-ए-दैरीना-ए-मा

मी तपद नाला ब-निश्तर कद-ए-सीना-ए-मा

बू-ए-गुल ले गई बैरून-ए-चमन राज़-ए-चमन

क्या क़यामत है कि ख़ुद फूल हैं ग़म्माज़-ए-चमन

अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन

उड़ गए डालियों से ज़मज़मा-पर्दाज़-ए-चमन

एक बुलबुल है कि महव-ए-तरन्नुम अब तक

उस के सीने में है नग़्मों का तलातुम अब तक

क़ुमरियाँ शाख़-ए-सनोबर से गुरेज़ाँ भी हुईं

पत्तियाँ फूल की झड़ झड़ के परेशाँ भी हुईं

वो पुरानी रविशें बाग़ की वीराँ भी हुईं

डालियाँ पैरहन-ए-बर्ग से उर्यां भी हुईं

क़ैद-ए-मौसम से तबीअत रही आज़ाद उस की

काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उस की

लुत्फ़ मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में

कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर पीने में

कितने बेताब हैं जौहर मिरे आईने में

किस क़दर जल्वे तड़पते हैं मिरे सीने में

इस गुलिस्ताँ में मगर देखने वाले ही नहीं

दाग़ जो सीने में रखते हों वो लाले ही नहीं

चाक इस बुलबुल-ए-तन्हा की नवा से दिल हों

जागने वाले इसी बाँग-ए-दिरा से दिल हों

यानी फिर ज़िंदा नए अहद-ए-वफ़ा से दिल हों

फिर इसी बादा-ए-दैरीना के प्यासे दिल हों

अजमी ख़ुम है तो क्या मय तो हिजाज़ी है मिरी

नग़्मा हिन्दी है तो क्या लय तो हिजाज़ी है मिरी

Wednesday, 26 July 2017

हरिवंश राय बच्चन


नाम–हरिवंश राय श्रीवास्तव उर्फ़ बच्चन।
जन्म–  27 नवम्बर 1907 बाबुपत्ति गाव। (प्रतापगढ़ जि.)
पिता–प्रताप नारायण श्रीवास्तव।
माता– सरस्वती देवी।
पत्नी– श्यामा बच्चन, उनके मृत्यु के बाद तेजी बच्चन से विवाह।
सन्तान–  अमिताभ और अजिताभ।

आरंभिक जीवन:

        बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव बाबूपट्टी में एक कायस्थ परिवार मे हुआ था। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव तथा माता का नाम सरस्वती देवी था। इनको बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ 'बच्चा' या संतान होता है। बाद में ये इसी नाम से मशहूर हुए। इन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू की शिक्षा ली जो उस समय कानून की डिग्री के लिए पहला कदम माना जाता था। उन्होने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम. ए. और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच. डी. पूरी की।
१९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो उस समय १४ वर्ष की थीं। लेकिन १९३६ में श्यामा की टीबी के कारण मृत्यु हो गई। पांच साल बाद १९४१ में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं। इसी समय उन्होंने 'नीड़ का पुनर्निर्माण' जैसे कविताओं की रचना की। तेजी बच्चन से अमिताभ तथा अजिताभ दो पुत्र हुए। अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं। तेजी बच्चन ने हरिवंश राय बच्चन द्वारा शेक्सपियर के अनूदित कई नाटकों में अभिनय का काम किया है।

        हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के पास प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव पट्टी में हुआ था। हरिवंश राय ने 1938 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी साहित्य में एम. ए किया व 1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवक्ता रहे। 1926 में हरिवंश राय की शादी श्यामा से हुई थी जिनका टीबी की लंबी बीमारी के बाद 1936 में निधन हो गया।  इस बीच वे नितांत अकेले पड़ गए। 1941 में बच्चन ने तेजी सूरी से शादी की।1952 में पढ़ने के लिए इंग्लैंड चले गए, जहां कैम्ब्रिज  विश्वविद्यालय  में  अंग्रेजी साहित्य/काव्य  पर शोध किया। 1955 में कैम्ब्रिज से वापस आने के बाद आपकी भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त हो गई। आप राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे और 1976 में आपको पद्मभूषण की उपाधी मिली। इससे पहले आपको 'दो चट्टानें' (कविता–संग्रह) के लिए 1968 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला था।

        1955 में, हरिवंशराय बच्चन दिल्ली में एक्सटर्नल विभाग में शामिल हुए जहा उन्होंने बहोत सालो तक सेवा की और हिंदी भाषा के विकास में भी जुड़े। उन्होंने अपने कई लेखो द्वारा हिंदी भाषा को प्रध्यान्य भी दिया। एक कवी की तरह वो अपनी कविता मधुशाला के लिए प्रसिद्ध है। ओमर खय्याम की ही तरह उन्होंने भी शेकस्पिअर मैकबेथ और ऑथेलो और भगवत गीता के हिंदी अनुवाद के लिए हमेशा याद किये जायेंगे। इसी तरह नवम्बर 1984 में उन्होंने अपनी आखिरी कविता लिखी “एक नवम्बर 1984” जो इंदिरा गाँधी हत्या पर आधारित थी।

        1966 में हरिवंशराय बच्चन का भारतीय राज्य सभा के लिए नामनिर्देशित हुआ और इसके तीन साल बाद ही सरकार ने उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया। 1976 में, उनके हिंदी भाषा के विकास में अभूतपूर्व योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.और उनके सफल जीवनकथा, क्या भूलू क्या याद रखु, नीदा का निर्मन फिर, बसेरे से दूर और दशद्वार से सोपान तक के लिए सरस्वती सम्मान दिया गया। इसी के साथ उन्हें नेहरू पुरस्कार लोटस पुरस्कार भी मिले है। अगर हम उन के बारे में प्रस्तावना जान्ने की कोशिश करे तो वन उन्होंने बहोत आसान बताई है। मिटटी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन- यही उनका परिचय है।

प्रेरणा:

        'बच्चन' ने इस 'हालावाद' के द्वारा व्यक्ति जीवन की सारी नीरसताओं को स्वीकार करते हुए भी उससे मुँह मोड़ने के बजाय उसका उपयोग करने की, उसकी सारी बुराइयों और कमियों के बावज़ूद जो कुछ मधुर और आनन्दपूर्ण होने के कारण गाह्य है, उसे अपनाने की प्रेरणा दी। उर्दू कवियों ने 'वाइज़' और 'बज़ा', मस्जिद और मज़हब, क़यामत और उक़वा की परवाह न करके दुनिया-ए-रंगों-बू को निकटता से, बार-बार देखने, उसका आस्वादन करने का आमंत्रण दिया है। ख़्याम ने वर्तमान क्षण को जानने, मानने, अपनाने और भली प्रकार इस्तेमाल करने की सीख दी है, और 'बच्चन' के 'हालावाद' का जीवन-दर्शन भी यही है। यह पलायनवाद नहीं है, क्योंकि इसमें वास्तविकता का अस्वीकरण नहीं है, न उससे भागने की परिकल्पना है, प्रत्युत्त वास्तविकता की शुष्कता को अपनी मनस्तरंग से सींचकर हरी-भरी बना देने की सशक्त प्रेरणा है। यह सत्य है कि 'बच्चन' की इन कविताओं में रूमानियत और क़सक़ है, पर हालावाद ग़म ग़लत करने का निमंत्रण है; ग़म से घबराकर ख़ुदक़शी करने का नहीं।

        'बच्चन' की कविता इतनी सर्वग्राह्य और सर्वप्रिय है क्योंकि 'बच्चन' की लोकप्रियता मात्र पाठकों के स्वीकरण पर ही आधारित नहीं थी। जो कुछ मिला वह उन्हें अत्यन्त रुचिकर जान पड़ा। वे छायावाद के अतिशय सुकुमार्य और माधुर्य से, उसकी अतीन्द्रिय और अति वैयक्तिक सूक्ष्मता से, उसकी लक्षणात्मक अभिव्यंजना शैली से उकता गये थे। उर्दू की गज़लों में चमक और लचक थी, दिल पर असर करने की ताक़त थी, वह सहजता और संवेदना थी, जो पाठक या श्रोता के मुँह से बरबस यह कहलवा सकती थी कि, मैंने पाया यह कि गोया वह भी मेरे दिल में है। मगर हिन्दी कविता जनमानस और जन रुचि से बहुत दूर थी। 'बच्चन' ने उस समय (1935 से 1940 ई. के व्यापक खिन्नता और अवसाद के युग में) मध्यवर्ग के विक्षुब्ध, वेदनाग्रस्त मन को वाणी का वरदान दिया। उन्होंने सीधी, सादी, जीवन्त भाषा और सर्वग्राह्य, गेय शैली में, छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिधा के माध्यम से, अपनी बात कहना आरम्भ किया और हिन्दी काव्य रसिक सहसा चौंक पड़ा, क्योंकि उसने पाया यह कि वह भी उसके दिल में है।

लेखन:

        लिखने का उत्साह बच्चन में विद्यार्थी जीवन से ही था। एम.ए के अध्ययन काल में ही उन्होने फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि ‘उमर ख्य्याम की रुबाईयों का हिन्दी में अनुवाद किया, जिसने उन्हे नौजवानों का प्रिय बना दिया था। इसी से उत्साहित हो उन्होंनें उसी शैली में अनेक मौलिक रचनायें लिखीं, जो मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश आदि में संग्रहित हैं। अपनी गेयता, सरलता, सरसता के कारण ये काव्य संग्रह बहुत ही पसंद किये गये। बच्चन आधुनिक काल की वैयक्तिक काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। व्यक्तिप्रधान गीतों के कवि के रूप में उन्होंने आत्मपरकता, निराशा और वेदना को अपने काव्य का विषय बनाया है। उनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियों में निशा निमंत्रण, मिलनयामिनी, धार के इधर उधर, आदि भी प्रमुख हैं। उनकी गद्य रचनाओं में - क्या भूलूं क्या याद करूं, टूटी छूटी कडियाँ, नीड का निर्माण फिर फिर आदि प्रमुख हैं। विषय और शैली की दृष्टि से स्वाभाविकता बच्चन की कविताओं का उल्लेखनीय गुण है। उनकी भाषा बोलचाल की भाषा होते हुए भी प्रभावशाली है। लोकधुनों पर आधारित भी उन्होने अनेकों गीत लिखें हैं। सहजता और संवेदनशीलता उनकी कविता का एक विशेष गुण है। यह सहजता और सरल संवेदना कवि की अनुभूति मूलक सत्यता के कारण उपलब्ध हो सकी। बच्चन जी ने बडे साहस, धैर्य और सच्चाई के साथ सीधी-सादी भाषा और शैली में सहज कल्पनाशीलता और जीवन्त बिम्बों से सजाकर सँवारकर अनूठे गीत हिन्दी को दिए। 18 जनवरी सन् 2003 को मुम्बई में आपका निधन हो गया।

कविताएँ:

•तेरा हार। (1932)
•मधुशाला। (1935)
•मधुबाला। (1936)
•मधुकलश। (1937)
•निशा निमन्त्रण। (1938)
•एकांत-संगीत। (1939)
•आकुल अंतर। (1943)
•सतरंगिनी।  (1945)
•हलाहल।  (1946)
•बंगाल का काल।  (1946)
•खादी के फूल। (1948)
•सूत की माला।  (1948)
•मिलन यामिनी। (1950)
•प्रणय पत्रिका। (1955)
•धार के इधर उधर। (1957)
•आरती और अंगारे। (1958)
•बुद्ध और नाचघर। (1958)
•त्रिभंगिमा। (1961)
•चार खेमे चौंसठ खूंटे। (1962)
•चिड़िया का घर।
•सबसे पहले।
•काला कौआ।

रचनाएँ:

•युग की उदासी।
•आज मुझसे बोल बादल।
•क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी।
•साथी सो ना कर कुछ बात।
•तब रोक ना पाया मैं आंसू।
•तुम गा दो मेरा गान अमर हो जाये।
•आज तुम मेरे लिये हो।
•मनुष्य की मूर्ति।
•हम ऐसे आज़ाद।
•उस पार न जाने क्या होगा।
•रीढ़ की हड्डी।
•हिंया नहीं कोऊ हमार!
•एक और जंज़ीर तड़कती है, भारत माँ की जय बोलो।
•जीवन का दिन बीत चुका था छाई थी जीवन की रात।
•हो गयी मौन बुलबुले-हिंद।
•गर्म लोहा।
•टूटा हुआ इंसान।
•मौन और शब्द।
•शहीद की माँ।
•क़दम बढाने वाले: कलम चलाने वाले।
•एक नया अनुभव।
•दो पीढियाँ।
•क्यों जीता हूँ।
•कौन मिलनातुर नहीं है?
•है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
•तीर पर कैसे रुकूँ मैं आज लहरों में निमंत्रण!
•क्यों पैदा किया था? 

Tuesday, 25 July 2017

ऐसी भी क्या आदत है।


आसिम खाँन : 
चुप चुप रहना कुछ ना कहना, ऐसी भी क्या आदत है।
तन्हा दिल का बोझ उठाना, ऐसी भी क्या आदत है।।

जाने वाले जाते है तो लौट कर कब आते है।
याद में उनकी अश्क बहाना, ऐसी भी क्या आदत है।।

खुशबू जिनसे रूठ गई हो, रंग भी जिनका फीका हो।
ऐसे फूलों को घर में सजाना, ऐसी भी क्या आदत है।।

उड़ता हुआ ग़ुबार हूँ मैं...


तलाश-ए-यार में उड़ता हुआ ग़ुबार हूँ मैं
पड़ी है लाश मेरी और क़ब्र से फ़रार हू मैं

- साभार

क्या लिखना चाहता है ये कवि ?

MAYANK BOKOLIA मैं कविता लिखना चाहता हूँ "आज़ादी पर" कोरे कागज़ पर कलम रख उकेरना चाहता हूँ वो सब जो मैं जी रहा हूँ वो सब जो...