Sunday 13 August 2017

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं
हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं
शम-ए-नज़र ख़याल के अंजुम जिगर के दाग़
जितने चराग़ हैं तिरी महफ़िल से आए हैं
उठ कर तो गए हैं तिरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं
हर इक क़दम अजल था हर इक गाम ज़िंदगी
हम घूम फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आए हैं
बाद-ए-ख़िज़ाँ का शुक्र करो 'फ़ैज़' जिस के हाथ
नामे किसी बहार-ए-शिमाइल से आए हैं

क्या लिखना चाहता है ये कवि ?

MAYANK BOKOLIA मैं कविता लिखना चाहता हूँ "आज़ादी पर" कोरे कागज़ पर कलम रख उकेरना चाहता हूँ वो सब जो मैं जी रहा हूँ वो सब जो...