Sunday 23 July 2017

गुलज़ार : यार जुलाहे।


   मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे  
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते 
 जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ  
फिर से बाँध के  
और सिरा कोई जोड़ के उसमें  
आगे बुनने लगते हो  
तेरे इस ताने में लेकिन  
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की 
देख नहीं सकता है कोई  
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता  
लेकिन उसकी सारी गिरहें  
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे  

Ankur Srivastava | अँकुर श्रीवास्तव "श्री"


बात जब कहने लग जाये तो उसका लहजा, उसकी ज़बानी पर शक़ करो,
वो जवान जो संभल जाए सिर्फ कहने पर तो उसकी जवानी पर शक़ करो।

मोहब्बत में जो माँगने लगे वादे, खाने लगे कसमें और देने लगे निशानियाँ,
उस महबूब को, न मानो तुम सिर्फ अपना हमसाया, उसकी निशानी पर शक़ करो।

बहुत आये, जो हुए कलेजा, बहुत हुए जाते है अब भी मेहरबां जो तुम पर,
उन नूर के प्यालों पर, रेशमी शालों पर, उनकी मेहरबानी पर शक़ करो।

कभी उदास हुए जाता हूँ अब भी इस उम्र में भी आकर, शायद नादान हूँ,
गर तुम भी परेशां हो ख़ुद से, उम्र की आदतों से, तो अपनी नादानी पर शक़ करो।

कुछ होता भी है ज़िन्दगी में, जो जावेदानी हो और जिसे मान भी सको तुम?
जो भी शय देने लगे ये दिलासे, बात भरोसे पर आजाए, तो जावेदानी पर शक़ करो।

- अँकुर श्रीवास्तव "श्री"

Dr. Athar Khan | डॉ. अतहर खाँन


इस भटकते हुए दिल मे, यादों के सिवा कुछ नहीं ।
रौशनी छीन ली ज़िन्दगी ने, अंधेरों के सिवा कुछ नहीं ।।

वो महफ़िल को अपनी रंगों से सजाते रहे ।
झोली में मेरी ग़मों के सिवा कुछ नहीं ।।

उसको मिली हर ख़ुशी ज़माने की जश्न-ऐ-बज़्म में ।
हिस्से में मेरे चाक दामन के सिवा कुछ नहीं ।।

इस वीराने डगर का मै खुद ही मुहाफ़िज़ हूँ ।
जहाँ तक जाय नज़र पतझड़ के सिवा कुछ नहीं ।।

बहुत तारीफ़ सुनी थी दास्तान-ऐ-गुलिस्ताँ की 'अतहर' ।
जब रूठ जाये दिलबर तो दिल मे दर्द के सिवा कुछ नहीं ।।

Ameer Imam | अमीर इमाम

وہ خیال آیا تو ہر لمحہ دیوانہ ہو گیا
موسم تنہای پھر کتنا سہانہ ہو گیا۔
वो ख्याल आया तो हर लम्हा दिवाना हो गया
मौसम ए तन्हाई फिर कितना सुहाना हो गया.

وہ شجر جو تم نے سینچا تھا پھر اس کی شاخ پر
اک پرندہ آ کے بیٹھا اور روانہ ہو گیا۔
वो शजर जो तुमने सींचा था फिर उसकी शाख पर
इक परिंदा आके बैठा और रवाना हो गया.

صاف آتے ہیں نظر دنیا کے سارے عکس اب
تم سے بچھڑے ہیں تو دل آینہ خانہ ہو گیا
साफ आते हैं नजर दुनिया के सारे अक्स अब
तुमसे बिछड़े हैं तो दिल आईना खाना हो गया.

خرچ کرتا ہی نہیں قارون غم ہوں دوستو
جمع آنکھوں میں مری کتنا خزانہ ہو گیا۔
खर्च करता ही नहीं कारून ए गम हूं दोस्तों
जम्आ आंखों में मिरी कितना खजाना हो गया.

ساتھ روزانہ مرے چلتا ہے بازو تھام کر
وہ جسے دیکھے ہوے شاید زمانہ ہو گیا۔
साथ रोजाना मिरे चलता है बाजू थाम कर
वो जिसे देखे हुए शायद जमाना हो गया.

क्या लिखना चाहता है ये कवि ?

MAYANK BOKOLIA मैं कविता लिखना चाहता हूँ "आज़ादी पर" कोरे कागज़ पर कलम रख उकेरना चाहता हूँ वो सब जो मैं जी रहा हूँ वो सब जो...