Saturday 22 July 2017

मिर्ज़ा ग़ालिब | Mirza Ghalib

मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है।  ग़ालिब के लिखे पत्र, जो उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है। उन्हे दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला। ग़ालिब नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है।

आरंभीक जीवन:
ग़ालिब का जन्म आगरा मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। उन्होने अपने पिता और चाचा को बचपन मे ही खो दिया था, ग़ालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था. (वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी मे सैन्य अधिकारी थे). ग़ालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन् १७५० के आसपास भारत आए थे। उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर मे काम किया और अन्ततः आगरा मे बस गये। उनके दो पुत्र व तीन पुत्रियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके दो पुत्र थे।

मिर्जा अब्दुला बैग खान [मिर्जा ग़ालिब के पिताजी ] ने एक कश्मीरी लडकी इज्जत-उत-निसा बेगम से निकाह किया और वो अपने ससुराल में रहने लग गये | उन्होंने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निजाम के यहा काम किया | उनकी 1803 में अलवर में युद्ध के दौरान मौत हो गयी और उस समय मिर्जा ग़ालिब केवल पांच साल के थे | चाचा मिर्जा नसरुल्ला बैग खान ने उनका पालन पोषण किया |

इनके पूर्वज तुर्की में रहा करते थे. इनके पिता लखनऊ के नबाब के यहाँ काम करते थे, लेकिन 1803 में इनकी मौत हो गई, जिसके बाद छोटे से मिर्जा को उनके चाचा ने बड़ा किया. 11 साल की उम्र से ही मिर्ज़ा ने कविता लिखना शुरू कर दिया था. मिर्जा ने 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से शादी कर ली. मिर्ज़ा साहब ने लाहौर, जयपुर दिल्ली में काम किया था, बाद में वे आगरा आकर रहने लगे. अपनी हर रचना वो मिर्ज़ा या ग़ालिब नाम से लिखते थे, इसलिए उनका ये नाम प्रसिध्य हुआ. 1850 में बहादुर शाह ज़फर की सत्ता में आने के बाद मिर्ज़ा ग़ालिब को मुख्य दरबारी बनाया गया. राजा को भी कविता में रूचि थी, 1854 में मिर्ज़ा इनको कविता सिखाने लगे. 1857 में जब ब्रिटिश राज से मुग़ल सेना की हार हुई, तब पूरा साम्राज्य नष्ट हो गया. मिर्ज़ा साहब को इस समय उनकी आय मिलना भी बंद हो गई थी.

केवल 13 वर्ष की उम्र में उनका निकाह नवाब इलाही बक्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया |इसके बाद वो अपने छोटे भाई मिर्जा युसूफ खान के साथ दिल्ली में बस गये लेकिन उनके छोटे भाई की एक दिमागी बीमारी की वजह से चोटी उम्र में ही मौत हो गयी | उनके सात बच्चे पैदा होने से पहले ही मर गये थे | उन्होंने सोचा अब ये दुःख तो जीवन के साथ ही खत्म होगा | उन्होंने एक कविता में भी इसका जिक्र किया “”क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म, अस्ल में दोनों एक हैं,मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यूँ? |

गालिब को बचपन में ही पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी लेकिन दूसरी ओर उच्च कोटि के बुजुर्गों की सोहबत का लाभ मिला. शिक्षित मां ने गालिब घर पर ही शिक्षा दी जिसकी वजह से उन्हें नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी. फारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगरा के पास उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान ‘मौलवी मोहम्मद मोवज्जम’ से प्राप्त की. ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादि से इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया. गालिब की ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि वह न केवल जहूरी जैसे फारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे. बल्कि फारसी में गजलें भी लिखने लगें.

कहा जाता है कि जिस वातावरण में गालिब का लालन पालन हुआ वहां से उन्हें शायर बनने की प्रेरणा मिली. जिस मुहल्ले में गालिब रहते थे, वह (गुलाबखाना) उस जमाने में फारसी भाषा के शिक्षण का उच्च केन्द्र था. वहां मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वगैरा फारसी के एक-से-एक विद्वान वहां रहते थे. शायरी की शुरुआत उन्होंने 10 साल की उम्र में ही कर दी थी लेकिन 25 साल की उम्र तक आते-आते वह बड़े शायर बन चुके थे. अपने जीवन काल में ही गालिब एक लोकप्रिय शायर के रूप में विख्यात हुई. 19वीं और 20वीं शताब्दी में उर्दू और फारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए. गालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक कशिश अंदाज पाया जाता है. जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है.

शाही खिताब:
१८५० मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र २ ने मिर्ज़ा गालिब को "दबीर-उल-मुल्क" और "नज़्म-उद-दौला" के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे "मिर्ज़ा नोशा" क खिताब भी मिला। वे शहंशाह के दरबार मे एक महत्वपुर्ण दरबारी थे। उन्हे बहादुर शाह ज़फर २ के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय मे मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे।

शायरी:
गैर ले महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्ना-ऐ-लब पैगाम के
खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
इश्क़ ने “ग़ालिब” निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के.

दिया है दिल अगर उस को , बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो वो , नामाबर है , क्या कहिये
यह ज़िद की आज न आये और आये बिन न रहे
काजा से शिकवा हमें किस क़दर है , क्या कहिये
ज़ाहे -करिश्मा के यूँ दे रखा है हमको फरेब
की बिन कहे ही उन्हें सब खबर है , क्या कहिये
समझ के करते हैं बाजार में वो पुर्सिश -ऐ -हाल
की यह कहे की सर -ऐ -रहगुज़र है , क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ऐ-रिश्ता-ऐ-वफ़ा का ख्याल
हमारे हाथ में कुछ है , मगर है क्या कहिये
कहा है किस ने की “ग़ालिब ” बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके की आशुफ़्तासार है क्या कहिये.

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें ,
चल निकलते जो में पिए होते .
क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो ,
काश के तुम मेरे लिए होते .
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था ,
दिल भी या रब कई दिए होते.
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’,
कोई दिन और भी जिए होते.
दिले-नादां तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है.
हम हैं मुशताक और वो बेज़ार,
या इलाही ये माजरा क्या है.
मैं भी मूंह में ज़ुबान रखता हूं,
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है.
जबकि तुज बिन नहीं कोई मौजूद,
फिर ये हंगामा-ए-ख़ुदा क्या है.
ये परी चेहरा लोग कैसे है,
ग़मज़ा-ओ-इशवा-यो अदा क्या है.
शिकने-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरी क्या है,
निगह-ए-चशम-ए-सुरमा क्या है.
सबज़ा-ओ-गुल कहां से आये हैं,
अबर क्या चीज है हवा क्या है.
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद,
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है.
हां भला कर तेरा भला होगा,
और दरवेश की सदा क्या है.
जान तुम पर निसार करता हूं,
मैं नहीं जानता दुआ क्या है.
मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब',
मुफ़त हाथ आये तो बुरा क्या है.

घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर गर बहर न होता तो बयाबां होता
तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर दिल है
कि अगर तंग न होता तो परेशां होता
वादे-यक उम्र-वराय बार तो देता बारे
काश रिज़वां ही दरे-यार का दरबां होता

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद कयों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाले-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूं सवाबे-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं
वरना क्या बात कर नहीं आती
कयों न चीखूं कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़े-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ बूए चारागर नहीं आती
हम वहां हैं जहां से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरजू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मूंह से जाओगे 'ग़ालिब'
शरम तुमको मगर नहीं आती

मेहरबां हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वकत
मैं गया वकत नहीं हूं कि फिर आ भी न सकूं
जोफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूं
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या कसम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूं

म्रुत्यू:
ग़ालिब की मुगल दरबार में बहुत इज्जत थी और वो उन पर व्यग्य करने वालो पर शायरी लिख दिया करते थे | उनकी 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में मौत हो गयी | ग़ालिब पुरानी दिल्ली के जिस मकान में रहते थे उसको ग़ालिब की हवेली कहा जाने लगा और बाद में उसे एक स्मारक में तब्दील कर दिया गया |ग़ालिब की कब्र दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में निजामुद्दीन ओलिया के नजदीक बनाई गयी.

JAUN ELIA : Gaahe-gaahe ab yehi ho kya.

Gaahe-gaahe ab yehi ho kya, 
Tum se mil kar bohat khushi ho kya, 

Mil rahi ho barre tapaak ke sath, Mujh ko yaksar bhula chuki ho kya, 

Yaad hain ab bhi apne khawb tumhen, 
Mujh se mil kar udaas bhi ho kya,

Bas mujhe yuun hi ik khayal aya, Sochti ho to sochti ho kya,  

Kya kaha ishq javedani hai, 
Aakhri bar mil rahi ho kya,  

Mere sab tanz be-assar hi rahe, 
Tum bohat door ja chuki ho kya,  

Dil main ab soz-e-intezar nahin, Shama-e-umeed bujh gayi ho kya, 

Is samandar tishna-kaaam hoon main, 
Baan tum ab bhi beh rahi ho kya.

- Jaun Elia

रात आ जाए तो फिर

रात आ जाए तो फिर तुझ को पुकारूँ या-रब ।
मेरी आवाज़ उजाले में बिखर जाती है ।।

- साभार

क्या लिखना चाहता है ये कवि ?

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